नमस्ते मित्रों,
आज भारत में लॉक डाउन के दो सप्ताह पूरे हो गए! अब तक देश में करीब 5000 लोग कोविड-19 की चपेट में आ चुके हैं. बहुत से अति-विकसित देशों की तुलना में हमारी स्थिति काफी बेहतर लगती है. हालांकि यह भी सही है कि कई कारणों के चलते हमारे यहाँ मरीज़ों की संख्या का सटीक आकलन थोड़ा मुश्किल है. अब तक जिस प्रकार इस महामारी के फैलाव को रोकने का प्रयास किया गया है वह अद्भुत एवं प्रशंसनीय है। यह लॉक डाउन को सख्ती से लागू करने का ही परिणाम है. इस के लिए हमारा राष्ट्रीय व प्रांतीय नेतृत्व, पुलिस, प्रशासन, डाक्टर, चिकित्सा कर्मी तथा स्वयंसेवक साधुवाद के पात्र हैं।
यदि हम में से कुछ लोगों ने समझदारी दिखाई होती और प्रशासन से सहयोग किया होता, तो आज रोगियों की संख्या और भी कम होती. ऐसा लगता है कि जनमानस में यह भ्रान्ति समाई हुई है कि इस विपदा से लड़ने की जिम्मेदारी केवल प्रशासन की है. कोरोना वाइरस से बचने के लिए ज़रूरी सावधानियां बरतने में जो भी लापरवाही सामने आई हैं वह हम नागरिकों द्वारा ही की गयी हैं जबकि शासन ने इसे रोकने के लिए दिन रात एक कर रखे हैं. जिस समय देश इस वैश्विक महामारी की गंभीरता को समझ कर निरोधात्मक कदम उठा रहा था तब कोई विशाल धार्मिक समागम आयोजित कर रहा था तो कोई किसी सेलेब्रिटी द्वारा आयोजित जश्न में शामिल हो रहा था. ऐसे भी मामले सामने आ रहे हैं जब लोग रोग के प्रारंभिक लक्षणों को छुपाते हैं और बड़ी संख्या में लोगों को संक्रमित कर देते हैं. क्वारंटाइन तथा कर्फ्यू का उल्लंघन तो आम है. बहुत से लोग मास्क लगाने, दस्ताने पहनने तथा दूरी बना के रखने के प्रति भी लापरवाह नज़र आते हैं.
अभी हाल ही में मैं एक प्रतिष्ठित रिटेल ब्रांड के डिपार्टमेंटल स्टोर से आवश्यक वस्तुएं खरीदने गया तो वहां का नज़ारा देख कर स्तब्ध रह गया. मैंने किसी को भी दस्ताने पहने नहीं देखा तथा जिन्होंने मास्क पहन भी रखे थे तो वे ढीले और मात्र ऐसी रस्म अदायगी करते नज़र आ रहे थे जैसे कि हम हेलमेट पहनने में करते हैं. लोग शेल्फ्स के बीच एक दूसरे से सट कर निकल रहे थे और बिलिंग काउंटर पर भी सब हुजूम बना कर खड़े थे. मेरे आपत्ति करने पर भी उनमें कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई. हम शायद हर चीज़ को एक टोटके की तरह करना पसंद करते हैं जैसे मास्क देख कर ही वाइरस भाग जाएगा चाहे आप उसे दरवाज़े पर टांग कर रखें। प्रधानमंत्रीजी ने जनता कर्फ्यू के दिन उन लोगों को सम्मान देने की अपील की थी जो हमारे लिए इस महामारी से लड़ रहे हैं तो लोग ढोल मजीरे ले कर सड़कों पर आ गए। जब उन्होंने लाइटें बंद करने व दीप जला कर इस विपत्ति के विरुद्ध एकता दिखाने की बात की तो हम पटाखे चलाने लगे दीपमालाएँ सजाने लगे. संकटापन्न मानवता के साथ एकजुटता दिखाने का यह कौनसा तरीका था?
और उन मालिकों का क्या जिन्होंने सुदूर प्रांतों से रोज़ी रोटी के पीछे आए गरीब मज़दूरों को अपने हाल पर छोड़ दिया? श्रमिकों के इस महापलायन से देश भर में महामारी फैलने का खतरा और बढ़ गया. यह सही है की सरकारें लॉक डाउन के समय इस पलायन का अनुमान नहीं लगा सकीं। लेकिन मैं मानता हूँ कि देश में दिहाड़ी मज़दूरों के कल्याण के लिए ऐसे कानून अवश्य होंगे जो ठेकेदारों व नियोजकों की भी जिम्मेदारी तय करते हों. मेरी इस क्षेत्र में जानकारी अपर्याप्त है, कोई मित्र इस पर प्रकाश डाल सके तो टिप्पणी अवश्य करे.
हमारे रवैये से लगता है कि सब इस मुगालते मैं जी रहे हैं कि हमें इस संकट से जल्द मुक्ति मिल जाएगी. यह लड़ाई लम्बी और कठिन है. इसमें गलती की गुंजाइश नहीं है और कीमत भारी है. यदि हमने महामारी को रोक भी लिया, तो वह कब कहाँ दुबारा सर उठाएगी और कितनी ताक़त के साथ? कहना मुश्किल है. लम्बे लॉक डाउन के दूरगामी दुष्प्रभाव होंगे. इसके आर्थिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों का आकलन करना भी असंभव है. इससे विश्व को उबरने के लिए प्रत्येक नागरिक की प्रबल इच्छा शक्ति और अडिग संकल्प की आवश्यकता पड़ेगी। जिस प्रकार यह प्रोटीन का सूक्ष्म कण देश, जाति, धर्म, रंग व नस्ल का भेद किये बिना सबको अपना निशाना बनाता है उसी प्रकार हम सबको अपने सब विभेद और मतान्तर भूल कर इससे लड़ना होगा.
यह स्पष्ट है कि कोरोना वायरस की संक्रामकता लम्बे समय तक स्थिति सामान्य नहीं होने देगी तथा हमें न जाने कब तक बंधनों व सावधानियों के घेरे में रहना होगा। परन्तु मुझे विश्वास है कि यदि सर्वजन संकल्प कर लें तो अंत में विजय हमारी होगी. मैं बशीर बद्र साहब की दो पंक्तियों के साथ अपनी बात ख़त्म करना चाहूंगा-
"कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिजाज़ का शहर है ज़रा फासले से मिला करो "
जय हिन्द !🙏
जय हिन्द !🙏